- सुरेश पंडित
मिथक रचना और उन्हें धर्म के साँचे में ढालकर अतिमानवीय स्थिति तक पहुंचाना तथा उनसे जुड़ी घटनाओं को पराभौतिक गतिविधियों के रूप में पेश करना संभवत: प्रत्येक धर्माधिकारी, पंडों, पुरोहितों की मजबूरी रहा है क्योंकि इसी विधि से वे सामान्य जन के विवेक को अपनी गिरफ्त में रखते हुए अपने व्यावसायिक हित साधते रह सकते हैं। उनके आस्तित्त्व पर सवाल उठाना तथा उनके क्रियाकलाप की आलोचना करना व्यक्ति को धर्मद्रोही बना सकता है। यही वह डर है जो अनादिकाल से धर्म के हर अविश्वसनीय पहलू को यथावत् बनाये रखने में सफल हुआ है। लेकिन यह भी सच है कि संख्या या मात्रा में चाहे जितना कम हो इस तरह के पाखंडी कर्मकांडों के विरुद्ध विवेक शील लोगों की आवाजें भी समय समय पर उठती रही हैं और उन्हें जन समर्थन भी मिलता रहा है। ज्योति राव फुले, पेरियार और अम्बेडकर ने हिन्दू धर्म के अनेकों मिथकों को बेदर्दी से चीर फाडक़र उनमें अन्तर्निहित सचाइयों को बेनकाब करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। उसी परम्परा में प्रेम कुमार मणि और राजेन्द्र यादव का नाम भी रखा जा सकता है। यादव तो बार बार यह कहते रहे हैं कि हिन्दू धर्म का सबसे अधिक नुकसान गंगा और रामायण ने किया है। सारी दुनिया की गन्दगी अपने में समेटकर बहती गंगा आज भी परम पवित्र, पतित पावनी बनी हुई है और पाप के पंक में डूबे लोगों को साफ, शुद्ध कर उन्हें मृत्यु उपरान्त मोक्ष दिलाने की गारंटी भी दे रही है। इसी तरह उस रामायण की सर्वश्रेष्ठता भी अक्षुण्ण बनी हुई है जिसके द्वारा रची गई धर्मसत्ता व राजसत्ता के आदर्श और मर्यादा की मानसिकता सदा प्रश्नों, शंकाओं से घिरी रही है। हिन्दी के प्रमुख विचारक प्रेमकुमार मणि ने महिषासुर मर्दिनी दुर्गा की सचाई की खोज करते हुए लगभग एक दशक पहले जो लेख लिखा था वह पहले पटना के दैनिक ‘हिन्दुस्तान’ में फिर ‘जन विकल्प’ में और उसके बाद अक्टूबर 2011 में ‘फारवर्ड प्रेस’ मासिक में छपा था। उसी लेख पर कुछ बुद्धिजीवियों और जे एन यू के छात्रों की नजर पड़ी और उन्होंने इसका एक पोस्टर यूनिवर्सिटी में लगाया। उसमें दुर्गा को महिषासुर पर किये गये अत्याचार और नृशंस हत्या का अपराधी घोषित किया गया था। इस पर सवर्ण छात्रों की हिंसक प्रतिक्रिया हुई। लेकिन महिषासुर के पक्ष में खड़ा किया गया वह आन्दोलन अभी थमा नहीं है। उसी के बारे में विभिन्न लेखकों द्वारा लिखित नौ लेेखों का संग्रह ‘महिषासुर: एक पुनर्पाठ’ नामक पुस्तक के रूप में प्रमोद रंजन ने संपादित किया है।
इस पुस्तक का प्रमुख उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि आखिर महिषासुर नाम से शुरू किया गया यह आन्दोलन है क्या? इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? इसके निहितार्थ क्या हैं और हम इस आन्दोलन को किस नजरिये से देखें? संपादक का मानना है कि इस आन्दोलन की महत्ता इसी में है कि यह हिन्दू धर्म की जीवन-शक्ति पर गहरी चोट करने की क्षमता रखता है। जैसे जैसे यह प्रभावी व व्यापक होता जायेगा हिन्दू धर्म द्वारा उत्पीडि़त अन्य हाशियागत सामाजिक समूह भी धर्म ग्रन्थों के पाठों का विखंडन शुरू करेंगे और अपने पाठ निर्मित करेंगे। इन पाठों के स्वर जितने तीव्र और उग्र होंगे बहुजनों की सांस्कृतिक गुलामी के बंधन उतनी ही शीघ्रता से टूटेंगे।
इस आन्दोलन के बीज प्रेम कुमार मणि के अनुसार देवासुर संग्राम में देखे जा सकते हैं। वह दरअसल द्रविड़ और आर्यों का ही संग्राम था। आर्यों का नेता इन्द्र था जो उस समय शक्ति का केन्द्र माना जाता था। आर्यों का समाज पुरुष प्रधान था इसीलिये वे मातृभूमि की जगह पितृभूमि का नमन करते थे। उन्होंने अपने समाज के विस्तार के लिये पूरब अर्थात् बंगाल और असम से अपना तालमेल बढ़ाया। वह समाज मातृ सत्तात्मक था इसलिये आर्यों ने शक्ति के रूप में दुर्गा को भी अपनी देवी मान लिया। आज भी उत्तर भारत के अधिकतर हिन्दू जिन राम, कृष्ण, शिव, हनुमान आदि देवताओं की पूजा करते हैं वे पौरुष के प्रतीक हैं। लेकिन देवी के रूप में दुर्गा काली भी अब उन्हें मान्य हो गई है। दुर्गा को स्री शक्ति का प्रतीक बनाने के लिये ही महिषासुर की कल्पना की गई और उसे इस रूप में चित्रित किया गया जिससे वह समाज का शत्रु दिखाई दे और देवी दुर्गा उसका संहार कर धर्मानुयायियों के लिये पूज्य बन जाये। लेकिन मणि के अनुसार इस कथा का शुद्ध पाठ कुछ और तरह का है-महिष अर्थात् भैंस, महिषासुर अर्थात् महिष का असुर। असुर का मतलब जो सुर नहीं है। सुर का अर्थ देवता अर्थात् वे लोग जो कोई काम नहीं करते। परजीवी होते हैं। इसके अनुसार असुर वे हुए जो काम करके पेट भरते हैं। इस तरह महिषासुर का अर्थ होता है भैंस को पालकर धन्धा करने वाले=ग्वाले=अहीर। ये भैंस पालक अहीर बंगदेश में वर्चस्व प्राप्त लोग थे और द्रविड़ थे इसलिये आर्य संस्कृति के विरोधी थे। आर्यों ने इन्हें पराजित करने के लिये दुर्गा का अनुसंधान किया। बंगदेश में वेश्यायें दुर्गा को अपने कुल का मानती थी इसीलिये आज भी दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिये वेश्याओं के घर से थोड़ी सी मिट्टी जरूर लाई/मंगाई जाती है। भैंस पालकों के नायक या सामन्त की हत्या करने में दुर्गा को नौ दिन लगे। इसी की याद में नवरात्र मनाये जाते हैं। इस तरह एक पशुपालक समुदाय के नायक का वध करने वाली दुर्गा को शक्ति की देवी की प्रतिष्ठा मिली है। यह कैसा संयोग है कि विजयादशमी का पर्व दुर्गा को महिषासुर से हुए युद्ध में मिली विजय की स्मृति में तो मनाया जाता ही है राम के रावण पर विजय पाने की याद में भी मनाया जाता है।
लेखक और नाटककार अश्विनी कुमार पंकज तो यह सगर्व घोषणा करते हैं कि वे महाप्रतापी महिषासुर के वंशज हैं इसलिये विजयादशमी या दशहरा उनके लिये खुशियां मनाने का दिन नहीं है। वे कहते हैं कि सदियों से असुरों का वध किये जाते रहने के बावजूद आज भी झारखण्ड और छत्तीसगढ के कुछ इलाकों में असुरों का अस्तित्त्व बना हुआ है। लेकिन वे असुर किसी भी कोण से देखने पर राक्षस जैसे दिखाई नहीं देते। भारत सरकार ने इन्हें आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा है। अभी तक वे विकास के हाशिये पर हैं। 1981 की जनगणना के अनुसार उनकी कुल जनसंख्या 9100 थी जो वर्ष 2003 में घटकर 7793 रह गई जबकि आज की तारीख में छत्तीसगढ़ में उनकी कुल संख्या 301 मात्र है। कारपोरेट निगम जिस धरती पर ये असुर विचरते हैं उसके नीचे से बॉक्साइट निकालने को उतावले हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के निवासी अगरियां जाति के लोगों को भी को भी वैरियर आल्विन ने असुरों की श्रेणी में दिखाया है। जलपाईगुड़ी जिले के अलीपुर द्वार स्टेशन के पास माझेरडाबरी चाय बागान में रहने वाले दहारू असुर कहते हैं कि महिषासुर दोनों लोकों अर्थात् स्वर्ग और पृथ्वी पर सबसे अधिक शक्तिशाली थे। देवताओं को लगता था कि जब तक ये जीवित रहेंगे उनको महत्त्व नहीं मिलेगा। इसीलिये उन्होंने दुर्गा के नेतृत्त्व में महिषासुर को ही नहीं उनके सहचरों को भी मार डाला और उनके गले काटकर एक मुंडमाला बनाई और दुर्गा को पहना दी। चित्रों में दुर्गा को महिषासुर की छाती पर चढ़े रौद्र रूप में ही दिखलाया जाता है।
अधिकतर आदिवासी रावण को भी अपना पूर्वज मानते हैं। दक्षिण के अनेक द्रविड़ समुदायों में रावण का पूजन आज भी किया जाता है। झारखण्ड और बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में तो बाकायदा नवरात्र अर्थात् दशहरे पर रावणोत्सव मनाया जाता है। झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन आज भी रावण को अपना कुल गुरू मानते हैं।
‘इन्डिया टुडे’ हिन्दी के संपादक दिलीप मंडल इसी प्रसंग में यह सवाल उठाते हैं कि क्या धार्मिक ग्रन्थों की वैकल्पिक व्याख्या नहीं की जा सकती? सचाई यह है कि इसी पद्धति से उनमें वर्णित चरित्रों और घटनाओं के नये नये पहलू सामने आ सकते हैं और इससे वैज्ञानिक चिन्तन को बढ़ावा मिल सकता है। प्राचीन काल में शास्त्रों की व्याख्याओं को लेकर जो शास्त्रार्थ होते थे उन्होंने ही हिन्दू धर्म के अनेकों मतों, पन्थों, समुदायों और विचार परम्पराओं को जन्म दिया था। लेकिन जैसे जैसे समाज ज्ञान और विज्ञान से अधिक समृद्ध होता गया है लोगों की मानसिकता संकीर्ण होती गई है। उन्हें जो पाठ जिस तरह समझाया गया है वे उसी रूप में उसे अपनाना चाहते हैं। न स्वयं कोई नवीन चिन्तन करते हैं तथा न दूसरों के नये विचारों को अपनाने के लिये अपने मस्तिष्क के खिडक़ी दरवाजे खोलते हैं। वास्तव में पुनर्पाठ की प्रक्रिया तो लोकतांत्रिक विचार पद्धति को जीवन्त रखती है और उसे समृद्ध बनाती है। वे इस प्रसंग में फुले की कालजयी कृति ‘गुलाम गीरी’ और अम्बेडकर की ‘रिडल्ज आफ हिन्दूइज्म’ के उदाहरण सामने रखते है। फुले के अनुसार हिन्दुओं के धर्म ग्रन्थ ब्राह्मण पुरोहितों ने अपने हितों के संरक्षण के लिये निर्मित किये हैं और उन पर नई व्याख्याओं का इसलिये वे विरोध करते हैं ताकि समाज पर उनकी पकड़ बदस्तूर बनी रहें।
जे एन यू में आल इन्डिया बैकवर्ड स्टूडेन्ट्स फोरम द्वारा वर्ष 2011 में महिषासुर शहादत दिवस मनाने से देशभर में एक नई बहस शुरू हुई। पूरी निर्भीकता के साथ अब यह प्रश्न किया जाने लगा है कि यदि दुर्गा इतनी बलशालिनी थी तो उसने गोरी, गजनी, बाबर, हिटलर जैसे लोगों का वध क्यों नहीं किया? जिस महिषासुर को एक ऐसे नृशंस राक्षस के रूप में चित्रित किया गया है जो लोगों को भयभीत व आतंकित करने वाला था वह वास्तव में इसी देश का सामान्य नागरिक था जो स्वभाव से हिंसा विरोधी और प्रकृति पूजक था। उसे असुर बताकर मारा गया। जबकि स्वयं सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कष्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्र ने जनवरी 2011 में अपने एक निर्णय मे कहा था- ‘राक्षस और असुर कहे जाने वाले लोग ही इस देश के मूल नागरिक हैं।’ अन्य विद्वानों का भी मत है कि असुर आर्यों से श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे सुरा-शराब का सेवन नहीं करते। ब्राह्मणवादी ग्रन्थों के अनुसार यज्ञ विरोधी महिषासुर के पिता रंभासुर असुरों के राजा थे तथा उनकी माँ का नाम श्यामला राजकुमारी था। इस देश के मूल निवासी जिन्हें आर्यों ने साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी की सभ्यता को नष्ट कर हजारों वर्ष चले युद्ध में छल, कपट से परास्त कर असुर, अछूत, शुद्र, राक्षस आदि बनाकर समााजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से कमजोर एवं गुलाम बना लिया था उनके नायकों की हत्या कर उन्हें असुर व राक्षस घोषित कर दिया गया। कहा जाता है कि महिषासुर इतना पराक्रमी राजा था कि उसने देवताओं के राजा इन्द्र को भी युद्ध में परास्त कर दिया था, ऐसे राजा का वध करवाने के लिये देवताओं ने दुर्गा को भेज कर इस काम को सम्पन्न करवाया था। उधर लेखक जितेन्द्र यादव का कहना है कि पिछड़ी जाति बहुल उनके गांव में महिषासुर जैसी कद-काठी के तो कई व्यक्ति आज भी देखने को मिल जाते हैं पर दुर्गा जैसी कोई महिला कभी दिखाई नहीं दी है। ये जितेन्द्र यादव वही महानुभाव हैं जिन्हें जे एन यू के प्रशासन ने ‘महिषासुर का सच’ पर विमर्श के लिये परिसर में गोष्ठी आयोजित करने और पोस्टर लगा कर लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में नोटिस थमाया था और बाद में देशभर के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और राजनैतिक कार्यकर्ताओं के बढ़ते विरोध प्रदर्शन के कारण क्षमा याचना करते हुए वह नोटिस वापिस ले लिया था। 2011 से यह आन्दोलन चालू है और सन् 2013 में देश के लगभग 60 नगरों में इसका आयोजन हुआ है जो इसको मान्यता मिलते जाने का प्रमाण है।
दरअसल इतिहास का कथ्य किसी ऐसे सत्य को प्रकट नहीं करता जिस पर पुनर्विचार किया ही नहीं जा सकता। हर पीढी अपने अर्जित ज्ञान और संचित अनुभवों के आधार पर अपना इतिहास निर्मित करती है। इस प्रक्रिया में अक्सर पूर्व में प्रतिष्ठित नायक खलनायक बन जाते हैं और खलनायक सम्मान के पात्र। जिन असुरों व राक्षसों को मानवता के शत्रु के रूप में निन्दनीय बनाया जाता है वे देश के मूल निवासी के रूप में सामने आते हैं और अपनी पहचान स्थापित करने के लिये अपनी गाथा स्वयं लिखने को तत्पर हो जाते हैं। महिषासुर की एक अमर शहीद के रूप में प्रतिष्ठा आदिवासी संस्कृति के पुनरोदय का परिचायक है। हो सकता है प्रचलित इतिहास के उत्खनन से ऐसे और महानायक सामने आयें जो मनुवादी पूर्वाग्रहों के शिकार हुए हों इसलिये उन्हें अब तक ध्यान देने योग्य समझा ही नहीं गया हो।
संपर्क : सुरेश पंडित 383 स्कीम नं. 2, लाजपत नगर, अलवर - 301001, मो. 8058725639
पुस्तक का नाम : महिषासुर : एक पुनर्पाठ,
संपादक : प्रमोद रंजन
प्रकाशक : आल इन्डिया बैकवर्ड स्टूडेन्ट्स फोरम, जे एन यू, नई दिल्ली
मूल्य : 30 रुपये

इस पुस्तक का प्रमुख उद्देश्य यह स्पष्ट करना है कि आखिर महिषासुर नाम से शुरू किया गया यह आन्दोलन है क्या? इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी? इसके निहितार्थ क्या हैं और हम इस आन्दोलन को किस नजरिये से देखें? संपादक का मानना है कि इस आन्दोलन की महत्ता इसी में है कि यह हिन्दू धर्म की जीवन-शक्ति पर गहरी चोट करने की क्षमता रखता है। जैसे जैसे यह प्रभावी व व्यापक होता जायेगा हिन्दू धर्म द्वारा उत्पीडि़त अन्य हाशियागत सामाजिक समूह भी धर्म ग्रन्थों के पाठों का विखंडन शुरू करेंगे और अपने पाठ निर्मित करेंगे। इन पाठों के स्वर जितने तीव्र और उग्र होंगे बहुजनों की सांस्कृतिक गुलामी के बंधन उतनी ही शीघ्रता से टूटेंगे।
इस आन्दोलन के बीज प्रेम कुमार मणि के अनुसार देवासुर संग्राम में देखे जा सकते हैं। वह दरअसल द्रविड़ और आर्यों का ही संग्राम था। आर्यों का नेता इन्द्र था जो उस समय शक्ति का केन्द्र माना जाता था। आर्यों का समाज पुरुष प्रधान था इसीलिये वे मातृभूमि की जगह पितृभूमि का नमन करते थे। उन्होंने अपने समाज के विस्तार के लिये पूरब अर्थात् बंगाल और असम से अपना तालमेल बढ़ाया। वह समाज मातृ सत्तात्मक था इसलिये आर्यों ने शक्ति के रूप में दुर्गा को भी अपनी देवी मान लिया। आज भी उत्तर भारत के अधिकतर हिन्दू जिन राम, कृष्ण, शिव, हनुमान आदि देवताओं की पूजा करते हैं वे पौरुष के प्रतीक हैं। लेकिन देवी के रूप में दुर्गा काली भी अब उन्हें मान्य हो गई है। दुर्गा को स्री शक्ति का प्रतीक बनाने के लिये ही महिषासुर की कल्पना की गई और उसे इस रूप में चित्रित किया गया जिससे वह समाज का शत्रु दिखाई दे और देवी दुर्गा उसका संहार कर धर्मानुयायियों के लिये पूज्य बन जाये। लेकिन मणि के अनुसार इस कथा का शुद्ध पाठ कुछ और तरह का है-महिष अर्थात् भैंस, महिषासुर अर्थात् महिष का असुर। असुर का मतलब जो सुर नहीं है। सुर का अर्थ देवता अर्थात् वे लोग जो कोई काम नहीं करते। परजीवी होते हैं। इसके अनुसार असुर वे हुए जो काम करके पेट भरते हैं। इस तरह महिषासुर का अर्थ होता है भैंस को पालकर धन्धा करने वाले=ग्वाले=अहीर। ये भैंस पालक अहीर बंगदेश में वर्चस्व प्राप्त लोग थे और द्रविड़ थे इसलिये आर्य संस्कृति के विरोधी थे। आर्यों ने इन्हें पराजित करने के लिये दुर्गा का अनुसंधान किया। बंगदेश में वेश्यायें दुर्गा को अपने कुल का मानती थी इसीलिये आज भी दुर्गा की प्रतिमा बनाने के लिये वेश्याओं के घर से थोड़ी सी मिट्टी जरूर लाई/मंगाई जाती है। भैंस पालकों के नायक या सामन्त की हत्या करने में दुर्गा को नौ दिन लगे। इसी की याद में नवरात्र मनाये जाते हैं। इस तरह एक पशुपालक समुदाय के नायक का वध करने वाली दुर्गा को शक्ति की देवी की प्रतिष्ठा मिली है। यह कैसा संयोग है कि विजयादशमी का पर्व दुर्गा को महिषासुर से हुए युद्ध में मिली विजय की स्मृति में तो मनाया जाता ही है राम के रावण पर विजय पाने की याद में भी मनाया जाता है।
लेखक और नाटककार अश्विनी कुमार पंकज तो यह सगर्व घोषणा करते हैं कि वे महाप्रतापी महिषासुर के वंशज हैं इसलिये विजयादशमी या दशहरा उनके लिये खुशियां मनाने का दिन नहीं है। वे कहते हैं कि सदियों से असुरों का वध किये जाते रहने के बावजूद आज भी झारखण्ड और छत्तीसगढ के कुछ इलाकों में असुरों का अस्तित्त्व बना हुआ है। लेकिन वे असुर किसी भी कोण से देखने पर राक्षस जैसे दिखाई नहीं देते। भारत सरकार ने इन्हें आदिम जनजाति की श्रेणी में रखा है। अभी तक वे विकास के हाशिये पर हैं। 1981 की जनगणना के अनुसार उनकी कुल जनसंख्या 9100 थी जो वर्ष 2003 में घटकर 7793 रह गई जबकि आज की तारीख में छत्तीसगढ़ में उनकी कुल संख्या 301 मात्र है। कारपोरेट निगम जिस धरती पर ये असुर विचरते हैं उसके नीचे से बॉक्साइट निकालने को उतावले हो रहे हैं। छत्तीसगढ़ के निवासी अगरियां जाति के लोगों को भी को भी वैरियर आल्विन ने असुरों की श्रेणी में दिखाया है। जलपाईगुड़ी जिले के अलीपुर द्वार स्टेशन के पास माझेरडाबरी चाय बागान में रहने वाले दहारू असुर कहते हैं कि महिषासुर दोनों लोकों अर्थात् स्वर्ग और पृथ्वी पर सबसे अधिक शक्तिशाली थे। देवताओं को लगता था कि जब तक ये जीवित रहेंगे उनको महत्त्व नहीं मिलेगा। इसीलिये उन्होंने दुर्गा के नेतृत्त्व में महिषासुर को ही नहीं उनके सहचरों को भी मार डाला और उनके गले काटकर एक मुंडमाला बनाई और दुर्गा को पहना दी। चित्रों में दुर्गा को महिषासुर की छाती पर चढ़े रौद्र रूप में ही दिखलाया जाता है।
अधिकतर आदिवासी रावण को भी अपना पूर्वज मानते हैं। दक्षिण के अनेक द्रविड़ समुदायों में रावण का पूजन आज भी किया जाता है। झारखण्ड और बंगाल के सीमावर्ती इलाकों में तो बाकायदा नवरात्र अर्थात् दशहरे पर रावणोत्सव मनाया जाता है। झारखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री शिबू सोरेन आज भी रावण को अपना कुल गुरू मानते हैं।
‘इन्डिया टुडे’ हिन्दी के संपादक दिलीप मंडल इसी प्रसंग में यह सवाल उठाते हैं कि क्या धार्मिक ग्रन्थों की वैकल्पिक व्याख्या नहीं की जा सकती? सचाई यह है कि इसी पद्धति से उनमें वर्णित चरित्रों और घटनाओं के नये नये पहलू सामने आ सकते हैं और इससे वैज्ञानिक चिन्तन को बढ़ावा मिल सकता है। प्राचीन काल में शास्त्रों की व्याख्याओं को लेकर जो शास्त्रार्थ होते थे उन्होंने ही हिन्दू धर्म के अनेकों मतों, पन्थों, समुदायों और विचार परम्पराओं को जन्म दिया था। लेकिन जैसे जैसे समाज ज्ञान और विज्ञान से अधिक समृद्ध होता गया है लोगों की मानसिकता संकीर्ण होती गई है। उन्हें जो पाठ जिस तरह समझाया गया है वे उसी रूप में उसे अपनाना चाहते हैं। न स्वयं कोई नवीन चिन्तन करते हैं तथा न दूसरों के नये विचारों को अपनाने के लिये अपने मस्तिष्क के खिडक़ी दरवाजे खोलते हैं। वास्तव में पुनर्पाठ की प्रक्रिया तो लोकतांत्रिक विचार पद्धति को जीवन्त रखती है और उसे समृद्ध बनाती है। वे इस प्रसंग में फुले की कालजयी कृति ‘गुलाम गीरी’ और अम्बेडकर की ‘रिडल्ज आफ हिन्दूइज्म’ के उदाहरण सामने रखते है। फुले के अनुसार हिन्दुओं के धर्म ग्रन्थ ब्राह्मण पुरोहितों ने अपने हितों के संरक्षण के लिये निर्मित किये हैं और उन पर नई व्याख्याओं का इसलिये वे विरोध करते हैं ताकि समाज पर उनकी पकड़ बदस्तूर बनी रहें।
जे एन यू में आल इन्डिया बैकवर्ड स्टूडेन्ट्स फोरम द्वारा वर्ष 2011 में महिषासुर शहादत दिवस मनाने से देशभर में एक नई बहस शुरू हुई। पूरी निर्भीकता के साथ अब यह प्रश्न किया जाने लगा है कि यदि दुर्गा इतनी बलशालिनी थी तो उसने गोरी, गजनी, बाबर, हिटलर जैसे लोगों का वध क्यों नहीं किया? जिस महिषासुर को एक ऐसे नृशंस राक्षस के रूप में चित्रित किया गया है जो लोगों को भयभीत व आतंकित करने वाला था वह वास्तव में इसी देश का सामान्य नागरिक था जो स्वभाव से हिंसा विरोधी और प्रकृति पूजक था। उसे असुर बताकर मारा गया। जबकि स्वयं सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मार्कष्डेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्र ने जनवरी 2011 में अपने एक निर्णय मे कहा था- ‘राक्षस और असुर कहे जाने वाले लोग ही इस देश के मूल नागरिक हैं।’ अन्य विद्वानों का भी मत है कि असुर आर्यों से श्रेष्ठ हैं क्योंकि वे सुरा-शराब का सेवन नहीं करते। ब्राह्मणवादी ग्रन्थों के अनुसार यज्ञ विरोधी महिषासुर के पिता रंभासुर असुरों के राजा थे तथा उनकी माँ का नाम श्यामला राजकुमारी था। इस देश के मूल निवासी जिन्हें आर्यों ने साढ़े तीन हजार वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी की सभ्यता को नष्ट कर हजारों वर्ष चले युद्ध में छल, कपट से परास्त कर असुर, अछूत, शुद्र, राक्षस आदि बनाकर समााजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक रूप से कमजोर एवं गुलाम बना लिया था उनके नायकों की हत्या कर उन्हें असुर व राक्षस घोषित कर दिया गया। कहा जाता है कि महिषासुर इतना पराक्रमी राजा था कि उसने देवताओं के राजा इन्द्र को भी युद्ध में परास्त कर दिया था, ऐसे राजा का वध करवाने के लिये देवताओं ने दुर्गा को भेज कर इस काम को सम्पन्न करवाया था। उधर लेखक जितेन्द्र यादव का कहना है कि पिछड़ी जाति बहुल उनके गांव में महिषासुर जैसी कद-काठी के तो कई व्यक्ति आज भी देखने को मिल जाते हैं पर दुर्गा जैसी कोई महिला कभी दिखाई नहीं दी है। ये जितेन्द्र यादव वही महानुभाव हैं जिन्हें जे एन यू के प्रशासन ने ‘महिषासुर का सच’ पर विमर्श के लिये परिसर में गोष्ठी आयोजित करने और पोस्टर लगा कर लोगों की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के आरोप में नोटिस थमाया था और बाद में देशभर के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों और राजनैतिक कार्यकर्ताओं के बढ़ते विरोध प्रदर्शन के कारण क्षमा याचना करते हुए वह नोटिस वापिस ले लिया था। 2011 से यह आन्दोलन चालू है और सन् 2013 में देश के लगभग 60 नगरों में इसका आयोजन हुआ है जो इसको मान्यता मिलते जाने का प्रमाण है।
दरअसल इतिहास का कथ्य किसी ऐसे सत्य को प्रकट नहीं करता जिस पर पुनर्विचार किया ही नहीं जा सकता। हर पीढी अपने अर्जित ज्ञान और संचित अनुभवों के आधार पर अपना इतिहास निर्मित करती है। इस प्रक्रिया में अक्सर पूर्व में प्रतिष्ठित नायक खलनायक बन जाते हैं और खलनायक सम्मान के पात्र। जिन असुरों व राक्षसों को मानवता के शत्रु के रूप में निन्दनीय बनाया जाता है वे देश के मूल निवासी के रूप में सामने आते हैं और अपनी पहचान स्थापित करने के लिये अपनी गाथा स्वयं लिखने को तत्पर हो जाते हैं। महिषासुर की एक अमर शहीद के रूप में प्रतिष्ठा आदिवासी संस्कृति के पुनरोदय का परिचायक है। हो सकता है प्रचलित इतिहास के उत्खनन से ऐसे और महानायक सामने आयें जो मनुवादी पूर्वाग्रहों के शिकार हुए हों इसलिये उन्हें अब तक ध्यान देने योग्य समझा ही नहीं गया हो।
संपर्क : सुरेश पंडित 383 स्कीम नं. 2, लाजपत नगर, अलवर - 301001, मो. 8058725639
पुस्तक का नाम : महिषासुर : एक पुनर्पाठ,
संपादक : प्रमोद रंजन
प्रकाशक : आल इन्डिया बैकवर्ड स्टूडेन्ट्स फोरम, जे एन यू, नई दिल्ली
मूल्य : 30 रुपये